मैं भूल जाना चाहती हूँ..
उदास पीले कनेर का ज़हरीला सौन्दर्य..
मैं ऊब जाना चाहती हूँ..
तुममें.. अपनी इस दिन-रात की लिप्तता से..
निजात मांगती हूँ मैं..
इस खिजा देने वाली आधी अधूरी टीस से..
खुद को तलाशती.. मैं..
खो जाना चाहती हूँ.. इन अफनाए हुए जंगलों में
मैं जुगनुओं को पुकार.. उन्हें गिनना चाहती हूँ..
चमत्कारों में फिर से यकीन करने के लिए..
एक बार फिर से बन जाना चाहती हूँ..
पति के रुमाल.. बेटी की जुराबें संभालती गृहस्थन
बार-बार पनाह मांगती हूँ..
ऊन के गोलों.. रिश्तों की भीड़.. व्यंजनों की विधि में..
आजकल अक्सर ढूंढती रहती हूँ..
अपना वह दशकों पुराना खोल.. उसकी दमघोंटू 'सुरक्षा'..
मैं खुद से मिल कर बहुत परेशान हूँ..
और अब तो.. मेरा खोल भी सूखकर सिकुड़ गया है..
मैं कभी भी 'चारुलता' नहीं बनना चाहती थी..
फिर ऐसा क्यों हो गया???
ब्लॉग की दुनिया में स्वागत !!
ReplyDeleteचारुलता का दर्द , नारी का एक व्यापक रूप\
सब उभर आया रचना में ………
बेहतरीन रचनाकारा को शुभ कामनाये !!
शुक्रिया मुकेश जी.. आपकी ही प्रेरणा और सोहबत का असर है...
Deleteबेहद शानदार कविता दी... बेहतरीन, आपका ब्लॉग भी आप ही की तरह बहुत खूबसूरत है.. आप लिखती रहें बहुत बहुत अच्छा :)
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